Saturday, May 2, 2009

आह

क्यूँ इतनी नफ़रत है दिल में,
नाजायज़ ईर्षा क्यूँ पनपती है,
डरती हूँ आपने हार से शायद ..
हर भी तो एक सिख है ||||

साल बीत गये है, पर नासमझ हूँ..
आदमी को परख नही पाती
लूटकर भी एहसास नही होता
वो बकरी क वेश में बेड़ियाँ था |||

भाग रही हूँ कुछ पाने क लिए शायद
पर क्या, क्यूँ ,कब तक..
ठहेरकर देखा नही मैने,
आख़िर वास्तविकता है कहाँ????


क्यूँ इतना आशांत है मेरा मन
कुछ तो है.........
क्यूँ डरती हूँ दुनिया से,
वशुधैव कुटुम्बकम !!!!!

आस्तित्व है ,पहचान है मेरा,
पर क्यूँ भूल जाती हूँ ये???
आपनाए दुनिया चाहती हूँ,
मन की राह भूल जाती हूँ|||

भीड़ में भी तनहां है दिल ,,
खुशियों मे भी रोता है मन
जीना चाहती हूँ ,हसना चाहती हूँ ||
सवारना चाहती हूँ आपने बिखरे जीवन को..

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