Tuesday, May 12, 2009

भीड़ की तन्हाई..

भीड़ की तन्हाई..

सुनो ज़रा रास्ता छोड़ो मेरा
अरे!!! यहाँ वहाँ से ज़्यादा शोर है...
भीड़ में कही खो गयी हूँ
फिर भी तन्हाई का आलम है.....
हीरे को तरह चमकते है मेरे दाँत,
क्यूँ हो, पैसे खर्च होते है हज़ार
थक गयी हूँ इस कोरी हसी से.
हमेशा रोती हूँ भीड़ को हासने में....
कितनी कमज़ोर लाचार हो गयी हूँ
सोख लीया है सबसाहसमेरा
हर चेहेरे में तलाशती हूं वो साहस..
कंधो में उसके बहाना चाहती हूँ आपना दर्द..
लौट जाना चाहती हूँ बाबा के छाँव में...
जमीन का पानी ,,बागान के फल..
से जीवन तृप्त हो मेरा...
खो जाना चाहती हूँ अपने जाहान में||||

खो जाना चाहती हूँ सपनो में अपने,,,
दूर ईन स्वार्थी नज़रों से...
दूर ईन कर्कश आवाज़ो से..
जहाँ सुमधुर धुन बजती हो...... हमेशा |||
घोंघा होती , आपने बचाव में छुप जाती
साथ होता मेरी तन्हाई का वहाँ
समझो फरक है इस तन्हाई में
शांति आत्मसांतुष्टि दिल की हसी मिलती मुझे.....|||

Saturday, May 2, 2009

आह

क्यूँ इतनी नफ़रत है दिल में,
नाजायज़ ईर्षा क्यूँ पनपती है,
डरती हूँ आपने हार से शायद ..
हर भी तो एक सिख है ||||

साल बीत गये है, पर नासमझ हूँ..
आदमी को परख नही पाती
लूटकर भी एहसास नही होता
वो बकरी क वेश में बेड़ियाँ था |||

भाग रही हूँ कुछ पाने क लिए शायद
पर क्या, क्यूँ ,कब तक..
ठहेरकर देखा नही मैने,
आख़िर वास्तविकता है कहाँ????


क्यूँ इतना आशांत है मेरा मन
कुछ तो है.........
क्यूँ डरती हूँ दुनिया से,
वशुधैव कुटुम्बकम !!!!!

आस्तित्व है ,पहचान है मेरा,
पर क्यूँ भूल जाती हूँ ये???
आपनाए दुनिया चाहती हूँ,
मन की राह भूल जाती हूँ|||

भीड़ में भी तनहां है दिल ,,
खुशियों मे भी रोता है मन
जीना चाहती हूँ ,हसना चाहती हूँ ||
सवारना चाहती हूँ आपने बिखरे जीवन को..

Friday, May 1, 2009

खुश......बदनशीब

आँखे सुंदर हैं मेरी कहतें हैं...
खुशनशीब हूँ शायद जो सुन सकू..
दिल की भावनाओ को आवाज़ दे सकू..
और मा के एहसास को महसूस कर सकू !!!!!


सुंदरता को निहारने को मिली थी आँखे
कहा है सुंदरता???? सर्वत्र केवल बंज़र हैं ....
काश अंधी होती,अंधकार में खो जाती..
रंगीन छलवे से तो पवित्र कालापन बेहेतर????


थक गयी हैं श्रवण बेसुरे राग सुनकर
शोरो को अनसुना करना चाहूं!!!!
कोलाहल के बीच कहीं तो हो सुरीला राग...
निश्बद शांत जीवन को ही मानू||||


भावनाओ के फुवारो से सज़ा हैं जीवन
अवसोस!!! प्यार की नही,,,,छलवे क़ी
स्वार्थ की दीवेश की और ....(ना जाने क्या क्या??????)
अच्छा होता निर्जीब होता ये मन..


हाँ!! सच हैं ...दूर होना चाहती हूँ
समाज के हर एहसास से!!!!!
आपने आत्मा को मजबूत बना चाहती हूँ...
और आपने काया को निर्मल....

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