हसी का कैसा रूप है ये..
किन सुरों से छेड़ा साज़ है ये????
हा हा हा..कैसे अंधेरे में रहेते हो..
उफ्फ...ऐसा खाना कैसे खा सकते हो???
उस के पास मेरे से आधिक धन कैसे..
वो अपनी प्रगती का पात्रा नही...
मुझसे सक्षम कोई नही...हा हा हा..|
हरदम हरपल सुनाई देती है मुझे..
ये ईर्ष्या, द्वेषी,अहं की हसी|||
बिनति है कृपया मत हसो...बोखला जाउगि वरना..
हा हा हा...बस करो..मुझे जाने दो...
हा हा हा..कृपया शांत होजाओ...कृपया||
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ही ही ही... दीदी हो रही है बारिश बाहर..
चलो ना हुर्रे...भिगो दिया मैने आपको
संभवतः भिगोया है तुमने मुझे...मेरी आत्मा को
इस पवन जल से और आपनी सुरीली हसी से||
पत्तो में खेलते बारिश की बूंदे और बारिश में तुम..
कैसा आद्भुत सरगम छेड़ रहे है..||
स्तब्ध ,निशब्ध, मोहित बना दिया मुझे..
की आँखों से बहने लगी तुम्हारी सरगम||
दर है... बेसुरा ना होजाए ये सरगम
--तुम्हारी हसी और ये बूँदो की सरगम||
सुनना चाहती हूँ हमेशा हरपल..
--तुम्हारी हसी और ये बूँदो की सरगम||
बढ़िया.
ReplyDeletenice poem.......
ReplyDeletehaske jisne cheeda hai
ReplyDeletewoh to tere maan ka ghera hai
dhul jayenge dhire dhire,
... .. sare bharam barsaato se
rahenge na prasna koi
......badalte huee halato se
akeli nahi yaha,sub ki yahi kahani hai..
sargum k dhun pe ,gidti huii bund se kisko nahi nahana hai....
hey priya ur blog is so touchy too, too touchy .........share in facebook..........
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